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जब सुरु हुई मेरी जीवन कि कस्ती,
तो हम बीच भंवर मे हम खडे थे i
जहां कोई ना था अपना,
एक ऐसे सफर मे खडे थे ii
हर जगह कि तलास कि अपनो कि,
मगर जुल्मी सपने लिये बेगाने हि मिले थे iii
हमको भी थी एक खूबसुरत घर कि ख्वाहिश,
मगर ख्वाहिशों को कुचलने को हजार पहले हि खडे थे iv
जब खाने को कुछ भी ना था मेरे पास,
तो जिंदगी जिने को एक पल ना बचे थे v
जब उमर थी मां कि उंगलियां थामने कि,
तो हम चाकु लिये गली कि एक मोड पर खडे थे vi
सोचा था किसमत मे कहि तो लिखा होगा मेरे भी सुकुन,
मगर थी जिस सुकुन कि तलाश वो बचपन मे छोड चुके थे vii
ना जाने किस-किस ने रौंदा मेरे दिल को बहुत हि बेरहमी से,
हम हर गम को सहते हुऐ जिंदगी जीने को मजबूर खडे थे viii
लूट रहे थे मेरे विस्वास कि आबरु कुछ पैसों के हवसी पुजारी,
और हम बार-बार अपने टुटे दिल का तार जोड रहे थे ix
बनना था मुझे क्या, और क्या बना दिया मुझे मेरी किसमत ने,
गरीबी कि छांव मे हम भी अपनी इंसानियत बेचने को खडे थे x
मजबूर थे हम या मेरे हालात ने कर दिया था मुझे मजबूर,
हम चंद पैसों के खातिर इंसानियत कि जान लेने पे अडे थे xi
सपना तो था मेरा भी दोनो हाथों सबको खुशियां बाटने का,
मगर एक मे भरी बंदुक और एक हाथ मे चाकु लिये खडे थे xii
जो चला था ढकने अपनी इंसानियत के नंगेपन को,
आज वहि हाथ इसे उजाडने को खडे थे xiii
खुद का पेट भरने के खातिर हम सबका पेट काट रहे थे,
मैंने क्या बुरा किया ??? मैंने क्या बुरा किया ???
जो कर दिया उनका खून जो सबको मौत बांट रहे थे xiv$
जिसे मैंने अपना जाना आज वहि मुझे खुद के लिये मार रहे थे,
मैंने क्या बुरा किया ? मैंने क्या बुरा किया ??
जो काट दिये वहि हाथ जो सबको मुझ जैसी जिंदगी बांट रहे थे..!
लेखक : रोशन धर दुबे
लेखन तिथी : 27 अप्रैल2012 से 1 मई 2012 तक
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